प्र. सितार के भाग व बजाने की विधि लिखें।
या
सितार के भाग व तार को मिलाने की विधि लिखें।
सितार और उसके अंग
उ. उत्तर भारतीय संगीत में सितार काफी लोकप्रिय है। पाश्-चन्य देशो में भी इसका प्रचार धीरे-धीरे बढ़ रहा है। इसकी मधुरता शीघ्र ही श्रोताओ को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पं. रविशंकर जी ने पाश्-चन्य देशो में सितार को खूब लोकप्रिय बनाया।
सितार के आविष्कार के विषय में अनेक मतभेद है। कुछ लोग अमीर खुसरो के द्वारा इसका आविष्कार मानते है। कहते है कि सहतार नामक वाद्-य जिसके तीन तार होते थे, के आधार पर सितार का आविष्कार किया गया।
(सितार की बनावट को समझने के लिए इसके अंगो पर विचार करना आवश्यक है।)X
Sitaar aur uske bhaag ya ang
सितार के अंग
1) तूम्बा:- सितार का नीचे का भाग का गोलाकार भाग जो लौकी या कद्-दू जैसा बना होता है। इससे सितार की आवाज में गूंज पैदा होती है।
2) तबली:- तूंबा का थोड़ा भाग काटकर उसे पतली लकड़ी से ढक दिया जाता है। इसे तबली कहते है।
3) घुड़च: इसी तबली पर घुड़च की तारे अटकी रहती है। इसे Bride भी कहते है।) तबली के ऊपर लकड़ी या हाथी के दाँत की चांकी टिकी रहती है। जिस पर सितार की तारे रखी जाती है। इसे घुड़च कहते है।
4) कील: तूम्बे के निचले सिरे पर लकड़ी या हड्-डी की कील लगाते है। इस कील से तारे बंधी होती है।
5) डांड: सितार के तूंबे से लकड़ी की खोखली डांड जुड़ी होती है। जिस पर सितार के पर्दे बांधे जाते है।
6) गुलू: यह वह स्थान है जहाँ तूंबा और डांड जुड़ते है।
7) मनका: सितार की बाज की तार में कील और घुड़च के बीच में जो मोती पिरोया जाता है उसको मनका कहते है।
8) परदे: सितार के डांड के ऊपर पीतल अथवा जर्मन सिल्वर के अर्ध चन्द्रकार टुकड़े ताँत द्वारा बाँधे जाते है। इनकी संख्या 16 से 19 के बीच होती है। इन्हें पर्दे कहते है।
9) तारगहन: खूँटियों के पास हाथी दाँत की पट्टियां लगी रहती है। जिस पट्टी में तारों को पिरोया जाता है। उसे तारगहन कहते है।
10) अट्-टी/अट्टी: तारगहन के पास दूसरी पट्-टी/पट्टी जिस पर से तार रखे जाते है। अट्टी कहलाती है।
11) खूँटिया: डाँड के ऊपरी भाग में सात बड़ी खूँटिया लगी होती है। जिनसे सात तारों को बाँधा जाता है। खूँटियों को कस कर या ढीला कर के ही तारो को स्वर में लाया जाता है।
सितार की वादन शैली
सितार बजाते समय सितार को इस प्रकार रखा जाता है कि सितार का पिछला हिस्सा वादक की तरफ रहे। दाँए हाथ को तूँबे के पास डाँड के ऊपर रखा जाता है। तथा पहली ऊँगली में मिजराफ पहन कर दिर, दा, रा, द्रा आदि बोल निकाले जाते हैं।
1) दा- जब मिजराफ बाहर से लाते हुए तार पर प्रहार करते है और ऊँगली अपनी ओर खींच लेते है तो दा का बोल निकलता है।
2) रा- इसके विपरीत जब तार पर आघात करते हुए ऊँगली अंदर से बाहर जाती है तो रा का बोल निकलता है।
3) दिर- शीघ्रता (तेजी) से दा,रा बजाने को दिर का बोल निकलता है।
4) दार- दा बजाने के बाद रा का आधा समय छोड़ देने पर शेष आधे समय में र बजाने पर दार का बोल निकलता है।
बाएं हाथ को डाँड पर इस प्रकार रखा जाता है कि उंगलियाँ पर्दे पर रहती है तथा अंगूठा डाँड के पीछे रहता है।
स्वर निकालने के लिए मिजराफ से बारे को छोड़ने के साथ ही पर्दे पर तार को दबाया जाता है। जिससे स्वर उत्पन्न होता है।