Thursday, 27 March 2025

Sangeet Ratnakar

 संगीत रत्नाकर 

इस ग्रंथ की रचना 13वीं शताब्दी में पंडित शारंगदेव जी ने की थी। ये ग्रंथ केवल उत्तर भारत का ही नहीं अपितु दक्षिण भारत का भी आधार ग्रंथ है। इस ग्रंथ में गायन, वादन और नृत्य तीनों का विवरण है। आपने भरत मुनी द्वारा लिखे ग्रंथ को आधार मान कर अपने ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में सात अध्याय है- 
1. स्वर अध्याय 
2. राग विवेका अध्याय 
3. प्रकीर्णध्याय
4. प्रबन्धाध्याय
5. तालाध्याय
6. वाद्याध्याय
7. नृत्याध्याय

1. ग्रंथ परिचय: इन्होंने अपने ग्रंथ में सदाशिव, पार्वती, भरत, मंतग, और दुर्गा आदि ग्रंथकारो का उल्लेख किया है। 

2. संगीत लक्षण: इसमे संगीत के दो भेद माने है 
(a) मार्गी संगीत 
(b) देशी संगीत 

3. नाद: पंडित शारंगदेव जी गीत, वाद्य और नृत्य को नादात्मक मानते है। नाद से वर्ण, वर्ण से पद, और पद से वाक्य बनते है। पंडित जी के अनुसार वह संगीत उपयोगी मधुर ध्वनि जिसकी आंदोलन संख्या निश्चित है, उसको नाद कहते है। नाद के दो भेद है- आहत नाद और अनाहत नाद।

4. श्रुति: श्रुति के बारे में कहते है कि वह ध्वनि जो एक-दूसरे से अलग और स्पष्ट सुनी जा सके। उसको श्रुति कहते है। इनकी संख्या 22 मानी है। और इनका विभाजन 4-3-2-4-4-3-2 है।

5. स्वर: पंडित जी लिखते है कि श्रुति के बाद उत्पन्न होने वाले रंजक नाद को स्वर कहते है। इन्होंने 7 शुद्ध स्वर और 12 विकृत स्वर माने है।  

6. वादी, सम्वादी, विवादी और अनुवादी: जिस स्वर का राग में बहुत प्रयोग हो उसे वादी स्वर और जिस का प्रयोग वादी से कम हो वह सम्वादी स्वर तथा जिन स्वर का प्रयोग इनके अतिरिक्त हो, उन्हे अनुवादी कहते है तथा जिस का प्रयोग राग में वर्जित हो उसे विवादी स्वर कहते है।

7. ग्राम: ग्राम की परिभाषा के विषय में पं. शारंगदेव जी लिखते है कि ऐसा स्वर समूह जो मूर्च्छनाओ का आधार हो ग्राम कहलाता है। उन्होंने षडज और मध्यम ग्राम का वर्णन किया है और गंधार ग्राम का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया।

8. मूर्च्छना: सात स्वरों के कर्मानुसार आरोह, अवरोह करना मूर्च्छना कहलाता है। 

9. वर्ण: गाने की क्रिया को वर्ण कहते है। ये चार प्रकार के होते हैं –
i) स्थायी वर्ण 
ii) आरोही वर्ण
iii) अवरोही वर्ण
iv) संचारी वर्ण

10. अलंकार: पंडित जी ने उस समय में प्रचलित सभी अलंकारों को स्वर लिपि के साथ लिखा और कहा कि विशिष्ट वर्ण समुदाय को अलंकार कहते है। अलंकार का प्रयोग गायन में, रंजकता को बढ़ाने के लिए किया तथा स्वरो की स्थिति का ज्ञान करवाने के लिए किया। 

11. जाति लक्षण: शारंगदेव जी ने भरत द्वारा निर्धारित 10 लक्षणों में सन्यास, विन्यास, अंतर मार्ग को जोड़कर जाति के 13 लक्षण माने। जैसे: ग्रह, अंश, न्यास, आदि। 

12. वाद्य: संगीत रत्नाकर के अनुसार पंडित शारंग देव जी ने वाद्यों को उनके उपयोग कै अनुसार पंडित शारंगदेव जी ने वाद्यों को उनके उपयोग के अनुसार चार भागों में विभाजित किया है। 
(क) तंत्री वाद्य 
(ख) सुषिर वाद्य
(ग) अवनद्ध वाद्य
(घ) घन वाद्य
वास्तव में पं. शारंगदेव जी ने संगीत रत्नाकर की रचना करके एक अद्भुत और विलक्षण कार्य संपन्न किया है। 

13. थाट: आधुनिक काफी थाट संगीत रत्नाकर का शुद्ध थाट था। आज शुद्ध थाट बिलावल है।

No comments:

Post a Comment