Sunday, 20 April 2025

Murchhana मूर्च्छना definition in music

मूर्च्छना

मूर्च्छना शब्द मूर्च्छ धातु से बना है जिसका अर्थ है ‘चमकना’ । 

परिभाषा: भरतमुनि और पं. शारंगदेव के अनुसार सात स्वरों के क्रमानुसार आरोह-अवरोह करने को मूर्च्छना कहते है।

मूर्च्छना के प्रकार: ग्राम तीन प्रकार के हैं तथा प्रत्येक ग्राम में सात स्वर होते हैं। अतः 7×3=21 मूर्च्छनाएँ प्राप्त होती है।

1. षडज ग्रामिक मूर्च्छना: यह मूर्च्छना षडज ग्राम के ‘स’ स्वर से आरंभ होती है। बाकी की छह (6) मूर्च्छनाएँ एक-एक स्वर नीचे उतर कर, उसी स्वर को आधार मानकर सात स्वरो का आरोह तथा अवरोह करने से प्राप्त होती है। अतः यह मूर्च्छनाएँ क्रमशः स, रे, ग, म, प, ध, नि स्वरों से आरंभ होती हे।

2. मध्यम ग्राम मूर्च्छना: यह मूर्च्छना मध्यम स्वर से आरंभ की जाती है क्योंकि मध्यम ग्राम में ‘म’ को ‘स’ मानकर गाया जाता है। इस ग्राम की अन्य मूर्च्छनाएँ एक-एक स्वर नीचे उतर कर सात स्वरो का क्रमानुसार आरोह-अवरोह कर के पाई जाती है। मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाएँ क्रमशः म, ग, रे, स, नि, ध, प स्वर से शुरू की जाती है।

3. गंधार ग्राम की मूर्च्छना: इस ग्राम को स्वर्ग स्थित मानकर किसी भी ग्रंथकार ने वर्णन नहीं किया है। तथापि नाम अवश्य दिए हैं। इस ग्राम की पहली मूर्च्छना ‘नि’ स्वर से आरंभ की जाती है। इसके बाद एक-एक स्वर नीचे उतरते है। 

सारांश: प्राचीन काल में राग गायन की जगह जाति गायन किया जाता था तब ग्राम मूर्च्छना का बड़ा महत्व था। आधुनिक युग में मूर्च्छना का प्रचार बिल्कुल बंद है क्योंकि ‘स’ को ही राग का आधार स्वर माना जाता है लेकिन दक्षिण भारतीय संगीत में आज भी मूर्च्छना प्रयोग होता है। 

Saturday, 19 April 2025

गमक gamak definition in music in hindi

गमक

गाने और बजाने की विशेष क्रिया को गमक कहते है। स्वरो को जब विशेष ढंग से हिलाकर उनमें कंपन पैदा करके गाया जाता है तो उसे गमक कहते है।

गमक द्वारा स्वरो की क्रिया कई प्रकार से की जाती है।
1. किसी एक स्वर का जल्दी-2 कंपन करना। 
2. एक स्वर से दूसरे स्वर पर जाते समय उसके ऊपर तथा नीचे के स्वर को खींचते हुए जाना। 
3. एक स्वर से दूसरे स्वर पर एक ही बार जाना। 
4. एक स्वर से दूसरे स्वर पर ध्वनि को बिना तोड़े जाना।

कुछ विद्वान गमक के 19 प्रकार मानते है परन्तु प्राचीन ग्रंथों में गमक के 15 प्रकार ही प्राप्त होते हैं। जैसे:-
1. अंदोलित: जब किसी स्वर का कम्पन एक मात्रा काल मे किया जाता है तो उसे अंदोलित कहते है।

2. लीन: जब किसी स्वर का कम्पन मात्रा के 1/2 काल में किया जाता है तो उसे लीन कहते है।

3. प्लावित: जब किसी स्वर का कम्पन मात्रा के 3/4 काल में किया जाता है तो उसे प्लावित कहते है।

4. कंपित: जब किसी स्वर का कम्पन मात्रा के 1/4 काल में किया जाता है तो उसे कंपित कहते है।

5. स्फुरित: जब किसी स्वर का कम्पन मात्रा के 1/6 काल में किया जाता है तो उसे स्फुरित कहते है।

6. आहत: जब मूल स्वर के साथ दूसरे स्वर का हल्का सा स्पर्श किया जाए तो उसे आहत कहते है।

7. उल्लासित: जब स्वरो को ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर क्रमबद्ध रूप से हिलाया जाए तो उसे उल्लासित कहते है।

8. नामित: जब स्वरो का कंपन नम्रता से किया जाए तो उसे नामित कहते है।

9. मिश्रित: जब दो से ज्यादा प्रकारो को मिलाकर गाया बजाया जाए तो उसे मिश्रित कहते है।

आधुनिक अर्थ: आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत पद्धति में गमक का अर्थ भी बदल चुका है। गमक के प्रयोग मे सावधानी, सूझ-बूझ और अभ्यास की आवश्यकता है। उसका अधिक प्रयोग रस पैदा कर सकता है। गमक हिंदुस्तानी संगीत को पाश्चात्या संगीत से अलग करने वाली रेखा है।

Wednesday, 16 April 2025

कण kan definition in music in hindi

 कण 

किसी स्वर का उच्चारण करते समय उसके आगे या पीछे के स्वर को तनिक छुने या स्पर्श को कण कहते हैं। 

कण स्वर को मूल स्वर के ऊपर लिखते है। इस स्वर का प्रयोग संगीतिक रचनाओं को सजाने और संवारने के लिए होता है।

कण स्वर दो प्रकार के होते है —
1. पूर्वलगन कण  
2. अनुलगन कण

1. पूर्वलगन कण: इस कण स्वर का प्रयोग मूल स्वर से पहले किया जाता है। इसको मूल स्वर की बाईं ओर लिखा जाता है। जैसे: रे ग।

2. अनुलगन कण: इस कण स्वर का प्रयोग मूल स्वर के बाद किया जाता है। इसको मूल स्वर की दाईं ओर लिखा जाता है। जैसे: ग म।

इसके साथ राग में मधुरता आती है। ध्यान रहे, इसे गाने के लिए राग गाने की कुशलता आनी चाहिए नही तो राग बिगड़ जाता है। 

Sunday, 13 April 2025

आलाप Aalaap definition in music

 आलाप 

किसी भी राग का गायन वादन एकदम सीधे शुरू नहीं किया जाता, उसके आलाप से किया जाता है। राग के मुख्य स्वरों का विलम्बित (slow) लय में विस्तार करना आलाप कहलाता है। जिसको वर्ण, गमक, मींड, खटका, मुर्की आदि से सजाया जाता है। 

गायक या वादक आलाप द्वारा स्वरो का स्वरूप प्रस्तुत करता  है और अपने मन की भावनाओं को प्रकट करता है। आलाप भाव प्रधान होता है। गायन में आलाप  दो प्रकार से होता है– पहला आकार से और दूसरा नोम-तोम आदि शब्दों से। 

आलाप मुख्यता दो जगहों पर किया जाता है। एक तो गीत या गत से पहले जो कि ताल रहित होता है। और दूसरा गीत या गत के बीच-बीच में जो कि ताल बद्ध होता है। 

नोम-तोम का आलाप चार भागों स्थाई, अंतरा, संचारी और आभोग में बाँट दिया जाता है। आलाप करने से राग का पूरा माहौल बन जाता है, जिसका आनंद सभी लोग लेते हैं। 

वादक कलाकर पहले आलाप करते है। फिर जोड़ आलाप करते है। जोड़ झाला बजाने के बाद गत शुरू करते है। गायक कलाकार पहले आकार या नोम-तोम में आलाप कर गीत आरंभ करते है, जिससे राग का रस निरंतर बना रहता है।

Friday, 11 April 2025

तान taan definition in music

 तान 

तान का अर्थ है विस्तार करना। इसमे गीत का विस्तार होता है तथा चमत्कार की उपज होती है। किसी राग के स्वरो को द्रुत अर्थात्‌ तेज लय तथा आकार में गाने को तान कहते है।  आलाप की लय धीमी होती है और आलाप भाव प्रधान होते है। तान की द्रुत होती है और कला प्रधान होती है। 

1. जब तान में गीत के बोलो का प्रयोग करते हैं तो उसे बोल तान कहते है। 
2. तान को गाते समय राग के वादी, सम्वादी तथा वर्जित स्वरो का ध्यान रखा जाता है।
3. तानों में लय का महत्व ज्यादा होता है इसलिए छोटे ख़्यालों में या द्रुत गत में बराबर की लय या दुगुन में या बड़े ख्याल में चौगुन या अठगुन में गायक गाने गाते हैं। 

तानों के कई प्रकार प्रचलित हैं जिनमें से प्रमुख हैं —
1. शुद्ध तान: इस तान को ‘सपाट तान’ भी कहते है। जिस तान को राग के आरोह अवरोह में क्रमानुसार गाया जाए उसे शुद्ध तान कहते है। 

2. कूटतान: जिस तान में स्वर क्रमानुसार न होकर टेढ़े-मेढ़े हो उसे कूट तान कहते है।

3. मिश्र तान: जिस तान में शुद्ध और कूट तान मिश्रण हो उसे मिश्र तान कहते है।

4. छूट की तान: जब कोई तान तेज गति से ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर या नीचे से ऊपर गई जाए तो उसे छूट की तान कहते है। 

5. दानेदार तान: जिस तान में कण का प्रयोग होता है। उसे दानेदार तान कहते है।

6. गमक तान: जिस तान में गमक का प्रयोग होता है, उसे गमक की तान कहते है।

7. बोल तान: जिस तान में स्वरों की जगह बंदिश के बोलो का प्रयोग हो उसे बोल तान कहते है।

Tuesday, 8 April 2025

अलंकार Alankar definition in music

 अलंकार 

अलंकार संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है आभूषण या गहना। जिस प्रकार आभूषण या गहनों से हम अपने आप को सजाते है, उसी प्रकार अलंकार से संगीतकार गायन और वादन को सजाते है।

परिभाषा: नियमबद्ध विशेष प्रकार का वह वर्ण समूह जिस में आरोह-अवरोह दोनों हो अलंकार कहलाता है। 

अलंकार के प्रकार: 
1. सरल अलंकार 
2. अर्द्ध जटिल अलंकार
3. जटिल अलंकार

अलंकार के नियम: 
1. सभी अलंकार 'स' स्वर से शुरू होते है।
2. अलंकार में आरोह अवरोह दोनों होते है।
3. अलंकार शुद्ध स्वरों के इलावा विकृत स्वरों के भी बनते है।
4. अलंकार में स्वरो का निश्चित क्रम होता है। 

अलंकारों का महत्व: 
भरत मुनि जी अपने ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' में लिखते है कि अलंकारों के बिना गीत वैसे ही प्रतीत होता है जैसे चंद्रमा के बिना रात, जल के बिना नदी और फूल के बिना लता तथा आभूषण के बिना स्त्री शोभा नहीं देती। उसी प्रकार अलंकारों के बिना गीत भी शोभा नहीं देता। 

अलंकार के अभ्यास से स्वर ज्ञान तथा लय ज्ञान होता है।

Sunday, 6 April 2025

वर्ण varna definition in hindi in music.

 वर्ण

पंडित अहोबल ने “संगीत परिजात” में वर्ण की जो परिभाषा दी है, उसका अर्थ है “गायन की क्रिया का स्वरों के साथ विस्तार करना वर्ण कहलाता है।” उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि गाते या बजाते समय स्वरों के प्रयोग से आवाज को जो चाल मिलती है, उसे ‘वर्ण’ कहते है।

वर्ण के प्रकार: वर्ण चार प्रकार के है –
1. स्थाई वर्ण 
2. आरोही वर्ण 
3. अवरोही वर्ण 
4. संचारी वर्ण 

1. स्थाई वर्ण:- जब एक ही स्वर का बार-बार उच्चारण किया जाता है अर्थात एक ही स्वर पर स्थिर होने को स्थाई वर्ण कहते हैं।  जैसे: स स, रे रे, ग ग आदि।

2. आरोही वर्ण:- नीचे के स्वरों से ऊपर के स्वरों तक जाने की क्रिया को आरोही वर्ण कहते हैं। जैसे: स, रे, ग, म, प।

3. अवरोही वर्ण: ऊपर के स्वरों से नीचे के स्वरों तक आने की क्रिया को अवरोही वर्ण कहते हैं। जैसे: स, नि, ध, प आदि।

4. संचारी वर्ण: स्थाई वर्ण, आरोही वर्ण, अवरोही वर्ण इन तीनो के मिश्रित रूप को संचारी वर्ण कहते है। जैसे: स स, रे रे, स रे ग म, म ग, रे स।

महत्व 
1. वर्ण गायन के सभी प्रकारों में सुंदरता और रंजकता पैदा करता है।
2. वर्ण के द्वारा ही किसी राग का चलन निर्धारित होता है। 
3. कई रागो में अनेक समानताएँ होने के बाद भी वर्ण भेद से एक दूसरे से भिन्न हो जाता है।

Thursday, 3 April 2025

Raag aur thaat me antar

 थाट और राग में अंतर

प्र. राग और थाट की परिभाषा देते हुए अंतर स्पष्ट करें।

थाट: संगीत में नाद से श्रुति, श्रुति से स्वर तथा स्वर से सप्तक की उत्पत्ति मानी गई है। सप्तक के स्वरो मै शुद्ध और विकृत रूपों सहित और जिसमें राग उत्पन्न करने की क्षमता हो उसको थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है।

राग: राग शब्द का अर्थ है आनंद देना। कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात विशिष्ट स्वरो तथा वर्णों की सुंदर ताल बद्ध रचना राग कहलाती है।

थाट और राग में अंतर


थाट राग
(i)

(ii)

(iii)

(iv)

(v)

(vi)

(vii)


(viii)

थाट की उत्पत्ति सप्तक के शुद्ध अथवा विकृत 12 स्वरो से होती है।

थाट में सात स्वर अनिवार्य है।

थाट में स्वरो का क्रमानुसार होना आवश्यक है।

थाट में केवल आरोह की आवश्यकता होती है।

थाट गाया-बजाया नहीं जाता।

थाट में रंजकता की आवश्यकता नहीं होती है।

थाट में सोंदर्य का होना आवश्यक नहीं क्योंकि ये स्थिर स्वर समूह है।

थाट मे उसके अंतर्गत आने वाले किसी प्रसिद्ध को आश्रय राग कहा जाता है।
राग की उत्पत्ति थाट से होती है।

राग में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर अनिवार्य है।

राग में स्वरो का क्रमानुसार होना आवश्यक नहीं है।

राग में आरोह-अवरोह दोनो का होना आवश्यक है।

राग गाया बजाया जाता है।

राग में रंजकता की आवश्यकता होती है।

राग मे सौंदर्य का होना आवश्यक है।

राग का नाम थाट से लिया गया है।

Sunday, 30 March 2025

rago ka samay siddhant in hindi

रागों का समय सिद्धांत  

भूमिका: भारतीय संगीत की यह निजी विशेषता है कि इसके रागों को उनके निश्चित समय पर ही गाया बजाया जाता है क्योंकि प्राचीन ग्रंथकारो ने यह अनुभव किया है कि राग अपने निश्चित समय पर गाए जाने पर ही मधुर लगते हैं। 

नियम: रागों को समय अनुसार गाए जाने के तीन नियम बनाए गए हैं —
1. पूर्वांगवादी और उत्तरांगवादी रागों का नियम
2. संधिप्रकाश तथा उसके बाद गाए जाने वाले रागों का नियम 
3. अध्वदर्शक स्वरो का नियम 

1. पूर्वांगवादी और उत्तरांगवादी रागों का नियम: इस नियम के अनुसार सप्तक के स्वरों को दो भागों में बाँटा जाता है ।
i) स, रे, ग, म (पूर्वांग)
ii) दूसरा भाग- प, ध, नि, स (उत्तरांग)

जिन रागों का वादी स्वर सप्तक के पहले भाग में से है वे पूर्वांगवादी राग कहलाते है। इन्हें दिन के 12 बजे से रात्री के 12 बजे तक गाया -बजाया जाता है। 

जिन रागों का वादी स्वर सप्तक के दूसरे भाग में से हैं वे उत्तरांगवादी राग कहलाते है। ऐसे रागों को रात्रि के 12 बजे सै दिन के 12 बजे तक गाया -बजाया जाता है। 

2. संधिप्रकाश व (तथा) उसके बाद गाए बजाए जाने वाले रागों का नियम:  इस नियम के अनुसार रागो को स्वरो के आधार पर तीन भागों में बांटा गया है –
i) रे,ध कोमल स्वरो वाले राग
ii) रे,ध शुद्ध स्वरो वाले राग
iii) ग, नि कोमल स्वरो वाले राग

i) रे,ध कोमल स्वरो वाले राग: जिन रागों में रे, ध स्वर कोमल लगते हैं उन्हे सुबह व शाम 4 से 7 बजे के बीच गाया बजाया जाता है। इन्हें संधिप्रकाश राग कहते है क्योंकि ये दिन और रात के संधि समय में गाए बजाए जाते है। जैसे: भैरव, भैरवी, बसंत, पूर्वी आदि। 

ii) रे,ध शुद्ध स्वरो वाले राग: जिन रागो मे रे,ध स्वर शुद्ध लगते है, उन्हे सुबह व शाम 7 से 10 बजे के बीच गाया बजाया जाता है। जैसे: राग बिलावल, राग कामोद,  केदार आदि। 

iii) ग, नि कोमल स्वरो वाले राग: जिन रागो मे ग, नि स्वर कोमल लगते हैं उन्हें सुबह व शाम 10 से 4 बजे के बीच गाया बजाया जाता है। जैसे: राग आसावरी आदि। 

उपरोक्त नियम सभी रागो पर लागू नहीं होते है। बहुत से ऐसे राग है जो इन नियमों का उल्लंघन करते है। जैसे:- तोड़ी, भैरवी 

3. अध्वदर्शक स्वरो का नियम: रागों के समय निर्धारण में अध्वदर्शक स्वर की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। “म” स्वर को अध्वदर्शक स्वर कहा गया है। इसके दो रूप है।

i) जिन रागो में ‘म’ स्वर शुद्ध लगता है वे राग प्रातः (सुबह) गाए जाते है। जैसे:- राग भैरव 

ii) जिन रागो में ‘म’ स्वर तीव्र लगता है वे राग रात्रि में गाए बजाए जाते है। जैसे: राग केदार 

4. मौसमी राग: इन नियमो के अतिरिक्त बहुत से राग ऐसे हे जो ऋतुकालीन की श्रेणी में आते हैं। ऐसे रागो को उनके निश्चित मौसम में गाया बजाया जाता है। जैसे: मल्हार राग, जो वर्षा ऋतु में गाया बजाया जाता है। बसंत राग, बसंत ऋतु में। 

सारांश: कुछ विद्वान मानते है कि रागों का समय सिद्धांत वैज्ञानिक नहीं है इसलिए रागों को समय सिद्धांत के बंधन के रूप में न बाँधकर मन का रंजन करने वाला होना चाहिए। अतः अलग-अलग स्वरो वाले राग अलग-अलग समय पर मनुष्य की भावना को व्यक्त करने में सहायक है। चाहे हम लाख बार इनकी आलोचना करे। परंतु इस नियम में रह कर ही हमे आनंद मिलता है। 


Thursday, 27 March 2025

Sangeet Ratnakar

 संगीत रत्नाकर 

इस ग्रंथ की रचना 13वीं शताब्दी में पंडित शारंगदेव जी ने की थी। ये ग्रंथ केवल उत्तर भारत का ही नहीं अपितु दक्षिण भारत का भी आधार ग्रंथ है। इस ग्रंथ में गायन, वादन और नृत्य तीनों का विवरण है। आपने भरत मुनी द्वारा लिखे ग्रंथ को आधार मान कर अपने ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में सात अध्याय है- 
1. स्वर अध्याय 
2. राग विवेका अध्याय 
3. प्रकीर्णध्याय
4. प्रबन्धाध्याय
5. तालाध्याय
6. वाद्याध्याय
7. नृत्याध्याय

1. ग्रंथ परिचय: इन्होंने अपने ग्रंथ में सदाशिव, पार्वती, भरत, मंतग, और दुर्गा आदि ग्रंथकारो का उल्लेख किया है। 

2. संगीत लक्षण: इसमे संगीत के दो भेद माने है 
(a) मार्गी संगीत 
(b) देशी संगीत 

3. नाद: पंडित शारंगदेव जी गीत, वाद्य और नृत्य को नादात्मक मानते है। नाद से वर्ण, वर्ण से पद, और पद से वाक्य बनते है। पंडित जी के अनुसार वह संगीत उपयोगी मधुर ध्वनि जिसकी आंदोलन संख्या निश्चित है, उसको नाद कहते है। नाद के दो भेद है- आहत नाद और अनाहत नाद।

4. श्रुति: श्रुति के बारे में कहते है कि वह ध्वनि जो एक-दूसरे से अलग और स्पष्ट सुनी जा सके। उसको श्रुति कहते है। इनकी संख्या 22 मानी है। और इनका विभाजन 4-3-2-4-4-3-2 है।

5. स्वर: पंडित जी लिखते है कि श्रुति के बाद उत्पन्न होने वाले रंजक नाद को स्वर कहते है। इन्होंने 7 शुद्ध स्वर और 12 विकृत स्वर माने है।  

6. वादी, सम्वादी, विवादी और अनुवादी: जिस स्वर का राग में बहुत प्रयोग हो उसे वादी स्वर और जिस का प्रयोग वादी से कम हो वह सम्वादी स्वर तथा जिन स्वर का प्रयोग इनके अतिरिक्त हो, उन्हे अनुवादी कहते है तथा जिस का प्रयोग राग में वर्जित हो उसे विवादी स्वर कहते है।

7. ग्राम: ग्राम की परिभाषा के विषय में पं. शारंगदेव जी लिखते है कि ऐसा स्वर समूह जो मूर्च्छनाओ का आधार हो ग्राम कहलाता है। उन्होंने षडज और मध्यम ग्राम का वर्णन किया है और गंधार ग्राम का कोई स्पष्टीकरण नहीं किया।

8. मूर्च्छना: सात स्वरों के कर्मानुसार आरोह, अवरोह करना मूर्च्छना कहलाता है। 

9. वर्ण: गाने की क्रिया को वर्ण कहते है। ये चार प्रकार के होते हैं –
i) स्थायी वर्ण 
ii) आरोही वर्ण
iii) अवरोही वर्ण
iv) संचारी वर्ण

10. अलंकार: पंडित जी ने उस समय में प्रचलित सभी अलंकारों को स्वर लिपि के साथ लिखा और कहा कि विशिष्ट वर्ण समुदाय को अलंकार कहते है। अलंकार का प्रयोग गायन में, रंजकता को बढ़ाने के लिए किया तथा स्वरो की स्थिति का ज्ञान करवाने के लिए किया। 

11. जाति लक्षण: शारंगदेव जी ने भरत द्वारा निर्धारित 10 लक्षणों में सन्यास, विन्यास, अंतर मार्ग को जोड़कर जाति के 13 लक्षण माने। जैसे: ग्रह, अंश, न्यास, आदि। 

12. वाद्य: संगीत रत्नाकर के अनुसार पंडित शारंग देव जी ने वाद्यों को उनके उपयोग कै अनुसार पंडित शारंगदेव जी ने वाद्यों को उनके उपयोग के अनुसार चार भागों में विभाजित किया है। 
(क) तंत्री वाद्य 
(ख) सुषिर वाद्य
(ग) अवनद्ध वाद्य
(घ) घन वाद्य
वास्तव में पं. शारंगदेव जी ने संगीत रत्नाकर की रचना करके एक अद्भुत और विलक्षण कार्य संपन्न किया है। 

13. थाट: आधुनिक काफी थाट संगीत रत्नाकर का शुद्ध थाट था। आज शुद्ध थाट बिलावल है।

Saturday, 15 March 2025

vishnu narayana bhatkhande. पंडित विष्णु नारायण भातखंडे

 पंडित विष्णु नारायण भातखंडे

जन्म एवं शिक्षा:- इनका जन्म 10 अगस्त 1860 ईस्वी में हुआ। मुंबई के वालकेश्वर नामक स्थान पर हुआ। बचपन से ही इनको संगीत का बहुत शौक था। यह बांसुरी बहुत अच्छी बजाते थे। इन्होंने सितार बजाना भी सीखा। गायन मे भी आपको बहुत पुरानी बंदिशें याद थी। 

बी.ए.एल.एल.बी. की परीक्षा के बाद आपने कुछ समय तक वकालत की परंतु वकालत मे इनका मन नहीं लगा। उसे छोड़ कर संगीत को समाज में उच्च स्थान दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन ही लगा दिया। इसके लिए इन्होंने पूरे भारत की यात्राएँ की, प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन किया तथा विद्धवानो से संगीत की चर्चा की। जहाँ जो सामग्री मिली उसे प्राप्त किया। 

संगीत जगत को देन:- 

1. थाट राग पद्धति: आपने दक्षिण में प्रचलित 72 थाटों के आधार पर हिंदुस्तानी पद्धति में सभी रागों को 10 थाटों में बांटा।

2. ग्रंथ: इन्होंने संगीत पर अनेक उपयोगी पुस्तकें लिखी जिनमें से प्रमुख हैं-
(i) क्रमिक पुस्तक मालिका (6 भाग)
(ii) हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति (4 भाग)
(iii) श्री मल्लक्ष्य संगीतम 
(iv) अभिनव राग मंजरी   आदि 
इन्होंने मराठी और अंग्रेजी में अनेक पुस्तकें लिखी। 

3. स्वर लिपि पद्धति: इन्होंने संगीत की एक सर्वमान्य स्वर लिपि बनाई जो भातखंडे स्वर लिपि पद्धति के नाम से प्रचलित है। आपने अपने समय मे प्रचलित बंदिशों को स्वर लिपि बद्ध किया तथा उन्हे ‘क्रमिक पुस्तक मालिका’ के 6 भागो को इकट्ठा किया। इसके लिए आपको चोरी भी करनी पड़ी, छिपना पड़ा तथा अपमानित भी होना पड़ा। क्योंकि घरानेदार उस्ताद अपनी कला को बाहरी व्यक्तियों को नहीं देते थे। 

4. संगीत रचनाएँ: आपने चतुर पंडित के उपनाम से स्वयं ही अनेको बंदिशें रची। 

5. संगीत सम्मेलन: संगीत का जन साधारण में प्रचार करने के लिए इन्होने संगीत सम्मेलन भी करवाये। 

6. संगीत विद्यालय: आपने संगीत विद्यालयों की भी स्थापना की। जिनमें प्रमुख हैं –
(i) माधव संगीत विद्यालय 
(ii) बड़ौदा संगीत विद्यालय 
(iii) मैरिस म्यूजिक कॉलेज, लखनऊ 

7. शिष्य: आपने अनेक योग्य शिष्य भी संगीत जगत को दिए। जिनमे प्रमुख हैं – 
(i) श्री कृष्ण राजन जनकर 
(ii) राजा भैया पूंछवाले
(iii)  श्री रविन्द्र लाल राय आदि 

निधन: लकवा होने के बाद तीन साल तक बिस्तर पर रहने के बाद 10 सितंबर 1936 को आपका देहांत हो गया।  

सारांश: आपने संगीत को समाज में ऊँचा स्थान दिलवाने के लिए अपना पूरा जीवन ही लगा दिया जिसके लिए संगीत जगत आभारी रहेगा। 

Thursday, 13 March 2025

मियाँ तानसेन miyan tansen

 मियाँ तानसेन

भूमिका:- मियाँ तानसेन का नाम संगीत जगत में ही नहीं बल्कि लोक मात्र में संगीत का प्रतीक बन गया है। तानसेन जी के बारे मे अनेक कहानियाँ प्रचलित है। उनके जीवन के बारे में जो एतिहासिक जानकारी मिलती है, वो इस प्रकार है- 

1. जन्म: तानसेन जी का जन्म 1492-93 के बीच में माना गया है। आपका जन्म ग्वालियर के बेहट नामक स्थान पर मकरन्द पांडे के घर हुआ। कई विद्-वानो ने इनका नाम ‘तन्ना मिश्र’ लिखा है।

2. शिक्षा: बचपन से नटखट तन्ना विभिन्न जानवरों की तथा पशु-पक्षियों की आवाजों की हूबहू नकल उतार लेते थे। एक बार स्वामी हरिदास तथा उनके शिष्य टोली जब जंगल से गुजर रही थी तो उन्होंने शेर की दहाड़ निकाल कर उन्हें बुरी तरह से डरा दिया था। स्वामी हरिदास बालक तन्ना की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इन्हें इनके पिता से संगीत सिखाने के लिए मांग लिया। 10 वर्षो तक संगीत की शिक्षा दी।

इसके पश्चात आप ग्वालियर में फकीर ‘मोहम्मद गैस’ के पास रहने लगे जहाँ आपका परिचय राजा मान सिंह विधवा रानी मृगनयनी से हुआ। रानी आपके संगीत से से बहुत प्रभावित थी। उन्होने अपनी प्रिय दासी हुसैनी से तानसेन की शादी करवा दी। 

3. संगीतज्ञ के रूप में: तानसेन रीवा नरेश राजा राम चन्द्र के दरबारी गायक बन गए। राजा की प्रशंसा में आपने अनेक ध्रुपद भी रचे। अकबर के अनुरोध पर राजा राम चन्द्र को इन्हें सम्राट अकबर के दरबार में भेजना पड़ा। अकबर स्वंय एक महान संगीत प्रेमी थे। उन्होंने इन्हें अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया। अकबर के दरबार में रहते हुए तानसेन विश्व के कौने-कौने में प्रसिद्ध हो गए। कहते है के तानसेन के संगीत के प्रभाव से पत्थर पिघल जाते थे, दीपक जल जाते थे तथा पशु-पक्षी भी अपनी सुध-बुध खो देते थे। 

4. संगीत जगत को देन: 
(i) तानसेन जी ने अनेक ध्रुपदों की रचना की और उन्हें गाया भी।  
(ii) तानसेन जी रबाब नामक वाद्य बजाने मे भी कुशल थे। उन्हें भैरव राग में विशेष सिद्धि प्राप्त थी। 
(iii) उन्होंने कई रागो की स्थापना की जैसे:- मिया मल्हार, मिया की तौडी, दरबारी कान्हाडा, मियाँ की सारंग।
(iv) उन्होंने वीणा और सितार के आधार पर सुर बहार नामक वाद्यों की रचना की। 
(v) आपके लिखे ग्रंथ है-
     राग माला, संगीत सार, श्री गणेश स्तोत्र 

 

Tuesday, 11 March 2025

सप्तक Saptak definition in music

 सप्तक 

सात स्वरों के समूह को जब एक क्रम से गाया अथवा बजाया जाता है तो उसे सप्तक कहते है स, रे, ग, म, प, ध और नी। एक सप्तक स से नी तक होता है। नी के बाद जो स आता है, वहाँ से दूसरा सप्तक आरंभ होता है। यह सप्तक पहले सप्तक मे आए स से दुगुना ऊँचा होता है। सप्तक तीन प्रकार होता है -

1. मंद्र सप्तक:- साधारण आवाज से दोगुनी नीची आवाज मे गाया जाए, वह मंद्र सप्तक कहलाता है। इस सप्तक की आवाज नीची और गंभीर होती है। इस आवाज को गाने में हृदय पर जोर पड़ता है। पं. भातखंडे स्वर लिपि पद्धति के अनुसार मंद्र सप्तक के स्वरो को नीच बिंदु लगाया जाता है। जैसे: ग़, म़, प़, ध़, ऩि

2. मध्य सप्तक:- जिस सप्तक के स्वरो की आवाज साधारण बोलचाल जैसी होती है, उसे मध्य सप्तक कहते है। यह आवाज न अधिक नीची और न ही अधिक ऊँची होती है। इस की पहचान के लिए कोई भी चिन्ह का प्रयोग नहीं होता। जैसे: स, रे, ग, म, प, ध, नी

3. तार सप्तक:- मध्य सप्तक से दुगुनी ऊँची आवाज से बजाया जाने वाला सप्तक, तार सप्तक कहलाता है। इस सप्तक के स्वरों को गाने से मष्तिष्क पर जोर पड़ता है। स्वरों की पहचान के लिए स्वरो के ऊपर बिंदी का प्रयोग किया जाता है। जैसे: सं, रें, गं, मं।