Wednesday, 7 May 2025

meaning, characteristics and uses of accounting

 Q. Define Accounting. Explain the characteristics and uses of accounting.

Ans. MEANING OF ACCOUNTING: Accounting is the art of recording, classifying, summarising and communicating financial information to users for correct decision making. It gives information on:
(i) resources available
(ii) how the available resources have been employed
(iii) the results achieved by their use.
Since accounting is a medium of communication, it is called The language of business. 

DEFINITION OF ACCOUNTING: According to American Institute of Certified Public Accountants (A.I.C.P.A.), “Accounting is the art of recording, classifying and summarising in a significant manner and in terms of money, transactions and events which are, in part atleast, of a financial character, and interpreting the results thereof.”

CHARACTERISTICS OF ACCOUNTING: Following are the characteristics of accounting:
i) Accounting is an art as well as science: Art is the technique of attaining some pre-determined objectives. Accounting is an art of recording, classifying and summarising business transactions with a view to ascertain the net profit and financial position of the business enterprise.
        Any organised body of knowledge which is based on certain specified principles is called science. In this respect accounting is also a science since it is also an organised body of knowledge based on certain specified principles and accounting standards.

ii) Recording of Transaction of financial character: Only those transactions and events are recorded which are of a financial character and which can be expressed in terms of money. Hence, accounting involves the identifying of transactions and events that are considered of financial character and relate to the enterprise.

iii) Recording in terms of money: Each transaction is recorded in the books in terms of money only. For example, if business possesses ₹50,000 in Cash; Land measuring 2,000 metres; 5 trucks; 5 machines; 10 ton of raw materials; and so on. These cannot be added up and hence cannot give any useful information. But if they are expressed in terms of money, they will provide useful information such as, Cash ₹50,000; Land ₹2 crore; Trucks ₹50,00,000; Machines ₹20,00,000.

iv) Classifying: After recording the transactions in the books of accounts, the transactions are classified. Classification is the process of grouping the transactions of one nature at one place in a separate account. The book in which various accounts are opened is called ledger.

v) Summarising: Summarising is the art of presenting the classified data in a manner which is understandable and useful to management and other users of such data. This involves the balancing the ledgers and the preparation of trial balance and financial statements.

vi) Interpreting the results: Interpreting refers to explaining the results of business in such a manner that interested parties can make a meaningful Judgement (can have a full information) about profitability and financial position of the business.

vii) Communicating: It refers to transmission of summarised and interpreted information to the users who have an interest in the business enterprise to enable them to make reasoned decisions.

USES OF ACCOUNTING: Accounting is useful in following ways:
i) Useful in Management of Business: Management needs a lot of
information for the efficient running of the business. All such information is provided
by the accounting which helps the management in planning, decision making and controlling. For example management would like to know whether the sales are
increasing or decreasing and also the speed of increase in the cost of production. All such information is provided by the accounting, which helps the management in estimating the future sales and expenses. 

ii) Provides Complete and Systematic Record : Business transactions have grown in size and complexity and it is not possible to remember each and every transaction. Accounting keeps a prompt and systematic record of all the transactions and summarizes them in order to provide a true picture of the activities of the business entity.

iii) Information Regarding Profit or Loss : Accounting reports the net result of business activities of an accounting period. The Profit & Loss Account prepared at
the end of each accounting period discloses the net profit earned or loss suffered during that period. The information regarding profit is of great use to the owners and various other interested parties.

iv) Information Regarding Financial Position: Accounting reports the
financial position of the business by preparing a Balance Sheet at the end of each accounting period.

v) Evidence in Legal matters: Properly maintained accounts, supported by authenticated documents are accepted by the courts as a firm evidence.

vi) Facilitates Comparative Study: By keeping a systematic record, accounting helps the owners to compare one year's costs, expenses, sales and profit etc. with those of other years. Such a comparison provides the useful informations on the basis of which important decisions can be taken more judiciously.

vii) Facilitates in Assessment of Tax Liability: Properly maintained records will be of great help when the firm is assessed to income tax or sales tax. Such records
when audited are trusted by the taxation authorities.

viii) Facilitates Sale of Business: If a business entity is being sold, the
accounting information can be utilised to determine the proper purchase price.

ix) Helpful in Raising Loans: Accounting information is of great help while
raising loans from banks or other financial institutions. Such institutions before
sanctioning loan screen various financial statements of the firm such as final accounts, fund flow statement, cash flow statement etc.

x) Helpful in Prevention and Detection of Errors and Frauds.  

Tuesday, 6 May 2025

Sitaar aur uske bhaag ya ang

 प्र. सितार के भाग व बजाने की विधि लिखें।
या 
 सितार के भाग व तार को मिलाने की विधि लिखें।

सितार और उसके अंग 

उ. उत्तर भारतीय संगीत में सितार काफी लोकप्रिय है। पाश्-चन्य देशो में भी इसका प्रचार धीरे-धीरे बढ़ रहा है। इसकी मधुरता शीघ्र ही श्रोताओ को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पं. रविशंकर जी ने पाश्-चन्य देशो में सितार को खूब लोकप्रिय बनाया। 
सितार के आविष्कार के विषय में अनेक मतभेद है। कुछ लोग अमीर खुसरो के द्वारा इसका आविष्कार मानते है। कहते है कि सहतार नामक वाद्-य जिसके तीन तार होते थे, के आधार पर सितार का आविष्कार किया गया। 
(सितार की बनावट को समझने के लिए इसके अंगो पर विचार करना आवश्यक है।)X

Sitaar aur uske bhaag ya ang


सितार के अंग 

1) तूम्बा:- सितार का नीचे का भाग का गोलाकार भाग जो लौकी या कद्-दू जैसा बना होता है। इससे सितार की आवाज में गूंज पैदा होती है। 

2) तबली:- तूंबा का थोड़ा भाग काटकर उसे पतली लकड़ी से ढक दिया जाता है। इसे तबली कहते है। 

3) घुड़च: इसी तबली पर घुड़च की तारे अटकी रहती है। इसे Bride भी कहते है।) तबली के ऊपर लकड़ी या हाथी के दाँत की चांकी टिकी रहती है। जिस पर सितार की तारे रखी जाती है। इसे घुड़च कहते है। 

4) कील: तूम्बे के निचले सिरे पर लकड़ी या हड्-डी की कील लगाते है। इस कील से तारे बंधी होती है।

5) डांड: सितार के तूंबे से लकड़ी की खोखली डांड जुड़ी होती है। जिस पर सितार के पर्दे बांधे जाते है। 

6) गुलू: यह वह स्थान है जहाँ तूंबा और डांड जुड़ते है।

7) मनका: सितार की बाज की तार में कील और घुड़च के बीच में जो मोती पिरोया जाता है उसको मनका कहते है। 

8) परदे: सितार के डांड के ऊपर पीतल अथवा जर्मन सिल्वर के अर्ध चन्द्रकार टुकड़े ताँत द्वारा बाँधे जाते है। इनकी संख्या 16 से 19 के बीच होती है। इन्हें पर्दे कहते है। 

9) तारगहन: खूँटियों के पास हाथी दाँत की पट्टियां लगी रहती है। जिस पट्टी में तारों को पिरोया जाता है। उसे तारगहन कहते है। 

10) अट्-टी/अट्टी: तारगहन के पास दूसरी पट्-टी/पट्टी जिस पर से तार रखे जाते है। अट्टी कहलाती है। 

11)  खूँटिया: डाँड के ऊपरी भाग में सात बड़ी खूँटिया लगी होती है। जिनसे सात तारों को बाँधा जाता है। खूँटियों को कस कर या ढीला कर के ही तारो को स्वर में लाया जाता है।

सितार की वादन शैली 

सितार बजाते समय सितार को इस प्रकार रखा जाता है कि सितार का पिछला हिस्सा वादक की तरफ रहे। दाँए हाथ को तूँबे के पास डाँड के ऊपर रखा जाता है। तथा पहली ऊँगली में मिजराफ पहन कर दिर, दा, रा, द्रा आदि बोल निकाले जाते हैं। 
1) दा- जब मिजराफ बाहर से लाते हुए तार पर प्रहार करते है और ऊँगली अपनी ओर खींच लेते है तो दा का बोल निकलता है। 
2) रा- इसके विपरीत जब तार पर आघात करते हुए ऊँगली अंदर से बाहर जाती है तो रा का बोल निकलता है।
3) दिर- शीघ्रता (तेजी) से दा,रा बजाने को दिर का बोल निकलता है।
4) दार- दा बजाने के बाद रा का आधा समय छोड़ देने पर शेष आधे समय में र बजाने पर दार का बोल निकलता है।
बाएं हाथ को डाँड पर इस प्रकार रखा जाता है कि उंगलियाँ पर्दे पर रहती है तथा अंगूठा डाँड के पीछे रहता है। 
    स्वर निकालने के लिए मिजराफ से बारे को छोड़ने के साथ ही पर्दे पर तार को दबाया जाता है। जिससे स्वर उत्पन्न होता है।

Sitaar aur uske bhaag


Sitaar aur uske bhaag ya ang

Sunday, 4 May 2025

Sangeet Ratnakar

 संगीत रत्नाकर 

संगीत रत्नाकर भारतीय संगीत का प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह ग्रंथ उत्तरी और दक्षिणी संगीत पद्धति का आधार ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ को पं. शारंग देव जी ने सात भागों में विभाजित किया है। सात अध्याय इस प्रकार है-
1. स्वर अध्याय 
2. विवेका अध्याय 
3. प्रकीर्णध्याय
4. प्रबन्धाध्याय
5. तालाध्याय
6. वाद्याध्याय
7. नृत्याध्याय

1. ग्रंथ परिचय: पं. शारंग देव ने अपने ग्रंथ में सदाशिव-पार्वती, भरत, मतंग आदि ग्रंथकारो का उल्लेख किया है।

2. संगीत लक्ष्ण: इस ग्रंथ में संगीत दो भेद मार्गी और देशी जाने जाते हैं।  

3. नाद: पं. शारंग देव जी गीत, वाद्य और नृत्य को नादात्मक मानते है। नाद से वर्ण, वर्ण से पद, और पद से वाक्य बनते है।नाद के दो भेद है- आहत नाद और अनाहत नाद।

4. श्रुति: इन्होंने 22 श्रुतियाँ मानी है और 22 श्रुतियों को प्रभावित करने के लिए श्रुति साधना सरंचना का विवरण दिया है। 

5. स्वर: स्वर की परिभाषा में शारंग देव जी लिखते हैं कि श्रुति के बाद उत्पन्न होने वाले रंजक नाद स्वर कहलाता है। 22 श्रुतियों पर 7 शुद्ध स्वर माने हैं और 12 विकृत स्वरों को मिलाकर 19 स्वर माने है। 

6. वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी: जिस स्वर का राग में बहुत प्रयोग होता है, उसे वादी स्वर।  जिस स्वर का प्रयोग वादी से थोड़ा कम हो वह संवादी स्वर। जिस स्वर का प्रयोग उसके अतिरिक्त हो उन्हें अनुवादी स्वर तथा जिस स्वर का प्रयोग राग में वर्जित हो उसे विवादी स्वर कहते है। 

7. ग्राम: ग्राम की परिभाषा में पंडित शारंग देव जी लिखते हैं कि मूर्च्छना का आधार स्वर ग्राम कहलाता है। यह तीन प्रकार के है-
1. षडज ग्राम
2. मध्यम ग्राम
3. गंधार ग्राम

8. मूर्च्छना: सात स्वरों के क्रमानुसार आरोह-अवरोह करने को मूर्च्छना कहते है। षडज और मध्यम ग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएँ मानी। 

9. वर्ण: गाने की क्रिया को वर्ण कहते है। यह चार प्रकार के होते है:- 
1. स्थाई वर्ण 
2. आरोही वर्ण 
3. अवरोही वर्ण 
4. संचारी वर्ण

10. अलंकार: पंडित जी विशेष वर्ण समुद्र को अलंकार कहते है। उनके अनुसार अलंकार का प्रयोग गायन वादन में रंजकता बढ़ाता है। और स्वरो की सही स्थिति का ज्ञान करवाता है। 

11. थाट: शारंग देव जी ने शुद्ध थाट काफी माना है परंतु आजकल शुद्ध थाट बिलावल है।

12. जाति लक्षण: इन्होंने भरत द्वारा निर्धारित 10 लक्षणों में सन्यास, विन्यास, अंतर मार्ग को जोड़कर जाति के 13 लक्षण माने। जैसे: ग्रह, अंश, न्यास, आदि।

13. वाद्य: पंडित जी ने वाद्यों को उनके उपयोग के अनुसार चार भागों में बांटा है-
i) तत्वाद्य
ii) सुषि वाद्य
iii) अवनद वाद्य
iv) धन वाद्य 

14. ताल: इस अध्याय में पंडित ने उस समय की प्रचलित तालों के बारे में बताया है। इन सभी तालों को प्रभु के लिए गाने वाले मार्गी और देशी तालो मे विभाजित किया है। 

वास्तव में पं. शारंगदेव जी ने संगीत रत्नाकर की रचना करके एक अद्भुत कार्य किया है।


Friday, 2 May 2025

संगीत पारिजात Sangeet Parijat

 संगीत परिजात Sangeet Parijat 

‘संगीत परिजात’ ग्रंथ 1650 पंडित अहोबल जी द्+वारा लिखा गया जिसका अनुवाद फारसी में पं. दीनानाथ ने 1924 में किया। यह ग्रंथ 17वीं शताब्दी का महान ग्रंथ माना जाता है। पंडित अहोबल जी पहले संगीतकार थे जिन्होंने संगीत परिजात में वर्ण पर स्वर स्थापना निश्-चित करने के लिए एक नई पद्धति बनाई। 

ग्रंथ मंगला चरण से शुरू होता है। इसमे कुल 8 अध्याय हैं:- स्वर, ग्राम, मूर्च्छना, स्वर विस्तार, वर्ण, जाति, समय और राग प्रकरण। संगीत परिजात में कुल 500 श्लोक हैं। 8 अध्याय इस प्रकार है:

1. स्वर अध्याय- इस अध्याय में नाद की उत्पत्ति और उसके दो भेदों के बारे में बताया है। स्वर और श्रुति में स्वर को साँप और उसकी कुंडली को श्रुति बताया गया है। 22 श्रुतियों को 5 भागो में बाँटा  गया है। स्वरों, रागो और रसों के बारे में बताया गया है।

2. ग्राम अध्याय: पंडित अहोबल जी ने अपने ग्रंथ में लिखा है- स्वरो का समूह ही ग्राम कहलाता है। यह मूर्च्छना का आधार होता है। उन्होंने 3 ग्राम बताए है:-
i) षड्ज ग्राम 
ii) मध्यम ग्राम 
iii) गन्धार ग्राम 
षड्ज ग्राम को सबसे उत्तम माना है। राग दो ग्रामों पर षड्ज और मध्यम पर आश्रित है। गन्धार के बारे में वह स्वर्ग लोक में ग्राम होता है।

3. मूर्च्छना अध्याय: मूर्च्छना के बारे में पंडित अहोबल जो लिखते है जब ग्राम के स्वरों में आरोह-अवरोह किया जाए तो उसे मूर्च्छना कहते है। मूर्च्छना ग्राम पर आधारित है। उस समय ग्राम ही प्रचार में थे। हर  ग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएँ होती है।

4. स्वर विस्तार अध्याय: इस अध्याय में स्वर की परिभाषा इस प्रकार लिखते है "जो अपने आप ही सुनने वाले के चित्त को आकर्षित करते हैं, वे स्वर कहलाते है।" पंडित जी स्वर के दो भेद मानते हैं:- शुद्ध और विकृत। रागों में प्रत्यक्ष रूप से 12 विकृत स्वर माने है।

5. जाति अध्याय: इस अध्याय में सात शुद्ध जातियाँ षडजा, गन्धारी, मध्यमा, पंचम, धैवती, निषादी का परिचय दिया गया है। इसमे गमक के बारे में भी बताया/समझाया गया है।

6. समय अध्याय: इस अध्याय में पंडित जी ने वीणा पर स्वरों की स्थापना के बारे में बताया है। पंडित जी ने अपने समय के लोकप्रिय रागों के गायन का समय भी लिखा है जैसे रागतोड़ी का गायन समय दिन का पहला प्रहार है। भैरवी राग हर समय गाया जा सकता है। 

7. राग अध्याय: इस अध्याय में लिखते है कि राग तो बहुत से गाए हैं पर मैंने 125 रागो का वर्णन किया है। आपने वादी, सम्वादी, अनुवादी और विवादी स्वरों की भी परिभाषा दी है। वे आधुनिक परिभाषा के समान है।

8. वर्ण अध्याय: इस अध्याय में पंडित जी कहते है कि गायन की क्रिया को वर्ण कहते है। यह 4 प्रकार के है: स्थाई, आरोही, अवरोही, संचारी।
अलंकार के बारे में भी वर्णन किया है। इन्हीं अलंकारों से राग सजाए जाते है। 

सारांश: ये ग्रंथ आधुनिक संगीत से बहुत संबंध रखता है इसलिए पंडित जी को इस अनमोल भेंट को संगीत जगत कभी भी भूला नहीं सकता।

Wednesday, 30 April 2025

उस्ताद मुश्ताक अली ख़ान ustad Mushtaq Ali khan

 उस्ताद मुश्ताक अली ख़ान ustad Mushtaq Ali khan (सितार वादक)

मुश्ताक अली खाँ का जन्म 20 जून 1911 को बनारस में प्रसिद्ध सितार वादक आशिक अली जी के घर हुआ। 

वंश परंपरा:  इनका संबंध एक प्रसिद्ध संगीत घराने से है। घराने की परंपरा सेनिया घराने से जा मिलती है। वारिस अली खाँ (वीण कार) अकबर अली खाँ (टप्पा गायक), निसार अलि खाँ (गायक) जैसे कलाकार इनके पूर्वज थे। यह सभी कलाकार सम्राट बहादुर शाह के साथ बनारस तक आए थे और फिर वहीं रहने लगे तभी से इनका परिचय बनारस का कहलाता है। 

संगीत शिक्षा: संगीत की प्रारंभिक शिक्षा आपको अपने पिता उस्ताद आशिक अली खाँ से मिली जो प्रसिद्ध सितार वादक थे। अभी आप 15-16 वर्ष के ही थे। सितार बजाने में आपनै खूब प्रसिद्धि प्राप्त की, सुरबहार बजाने में भी आप प्रवीण थे। 

वादन शैली
1. आप जी की वादन शैली का एक अलग ही रंग था। आप जी की वादन शैली आप जी की पिता जी के वादन शैली के समान थी।

2. आप द्रुतगत का प्रयोग अधिक करते थे, विलम्बित गत का प्रयोग कम करते थे।

3. सबसे पहले आप जौनपुर में दरबारी संगीतकार नियुक्त हुए। तथा कुछ ही समय बाद आप जी ने अपना स्वतंत्र रूप में अपना व्यवसाय शुरू कर दिया। 

4. 1969 में आप ने ऑल इंडिया रेडियो से सितार बजाया। और फिर 1940-50 के बीच में आपका नाम बहुत रोशन हुआ।

5. आप को 1968 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला। 

6. इनके शिष्यों में निर्मल गुहा, निताई बाँस, शिप्रा चौधरी, डॉ. देबू  चौधरी के नाम विशेष हैं। 

7. आप हिन्दुस्तान के इकलौते सुर बहार वादक हुए जिन्होंने बिना अंग को प्रयोग तथा तीन मिज़राब के साथ किया वो भी पखावज, परंगत, द्रुपद अंग में बजाते थे। 

देहांत: मुश्ताक अली खाँ और उनकी बेगम खनीज खातुन ने भारतीय संगीत को आगे बढ़ाने के लिए खूब मेहनत की। भारतीय संगीत की सेवा करते हुए आप अंत में 21 जुलाई 1989 को स्वर्ग सिधार गए।

Tuesday, 29 April 2025

उस्ताद इनायत ख़ान ustad Inayat khan

 ustad Inayat khan उस्ताद इनायत ख़ान (सितार वादक)

जन्म एवं शिक्षा: प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद इनायत ख़ान का जन्म 16 जून 1895 को इटावा में हुआ था।आपके पिता इमदाद खाँ एक अच्छे सितार वादक थे। इनायत खाँ अपने पिता के साथ काफी समय इंदौर दरबार में रहे और वहीं पिता द्-वारा आपको सितार की शिक्षा मिली। और अपने भाई वहीद खाँ से सुरबहार (instrument) सीखा। 

नियुक्त: पिता के देहांत के बाद आप कलकत्ता आ गए और वहाँ गौरीपुर रियासत में आपको सम्मान से नियुक्त किया गया।

संगीत जगत को देन
1. वादन शैली: इनके सितार वादन में अनोखापन था और वह भाव था। सितार के आलाप अंग पर आप विशेष जोर देते थे। उस समय आपकी कलाकारी के कारण  सितार  वादन बहुत लोकप्रिय हुआ और इनकी वादन शैली भी सफलता के शिखर पर पहुँची क्योंकि इससे पहले 1 सितार वादन की स्वतंत्र वादन शैली कायम नहीं थी।

1. आपने कलकत्ता में अपने अनेकों शिष्यों को अपनी वादन शैली में निपुण किया। इस प्रकार इनकी वादन शैली को बहुत सम्मान दिया।

2. आपने सितार पर बजाई जाने वाली अनेक रचनाएँ बनाई। 

3. आपके वादन में मिज़राब के बोल अलग प्रकार के थे।

4. आप रागो में विवाद स्वर का प्रयोग खूब करते थे।

5. आपके सितार वादन में स्वर, लय, और ताल का विशिष्ट काम था।

6. आपके घराने में जोड़ आलाप और ताल प्रधान है।

7. आप सुर बहार भी बजाते थे। इन्होंने कई जगह सुर बहार व सितार वादन का प्रदर्शन किया।

8. इनके शिष्य नक्षत्रों की भांति देश में अपनी चमक फैला रहे हैं। 
i) विलायत खाँ
ii) इमरत खाँ

9. आपको इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ ने सितार वादन के लिए इंग्लैंड में बुलाया था। 

10. राग बिहाग, मालकौंस, बागेश्वरी आदि आपके प्रिय राग थे।

संगीत के क्षेत्र में यह आपका ऐसा योगदान है जिसे संगीत जगत भुला नहीं सकता।

10 नवंबर 1938 को इनका देहांत हो गया। 

Monday, 28 April 2025

Soot sut सूत definition in music in hindi

 सूत 

यह क्रिया बिना पर्दे के तारों वाले साजों में प्रयोग की जाती है, जो मिज़राब या गज से बजाए जाते है। जैसे सारंगी,सरोद आदि। इन साजों में मींड का काम दिखाना सूत कहलाता है। बांए हाथ की उंगली से तार को दबा कर दांए हाथ से आवाज को बिना तोड़ते हुए बजाना होता है। इस की लय मध्य होती है।

Sunday, 27 April 2025

Ghaseet घसीट definition in music in hindi

 Ghaseet घसीट 

घसीट का अर्थ है तार पर उंगली को घसीटना। सितार पर घसीट का काम ज्यादा दिखाया जाता है। सितार वादन में किसी एक स्वर से दूसरे स्वर तक, मिज़राब के एक ही प्रहार से, बीच वाले स्वरों को स्पर्श करते हुए शीघ्रता से उंगली को घसीटते हुए ले जाने को घसीट कहते है। इस क्रिया में पहला स्वर और अंत वाला स्वर स्पष्ट सुनाई देता है। यह ध्वनि कानों को बहुत अच्छी लगती है। 

इस क्रिया का प्रयोग गज से बजाने वाले साजों पर भी किया जाता है। जैसे: सारंगी, इसराज आदि। इस साजों में मींड को ही  सूत या घसीट कहते हैं।

Saturday, 26 April 2025

कृन्तन krintan definition in music in hindi

 कृन्तन

मिज़राब के एक ही प्रहार से उँगलियों द्वारा बिना मींड लिए दो या दो से ज्यादा स्वर बजाने को कृन्तन कहते है। 

सितार पर ये क्रिया बाएँ हाथ की उंगलियों से पूरी होती है। इसमें दो या तीन उंगलियाँ एक के बाद एक स्वर बजाती हुई कृन्तन बनाती है। जैसे: स पर दूसरी उंगली रख कर तार छेड़ते हुए उसकी आवाज़ कायम रखते हुए तीसरी उंगली नी को छू कर हट जाए तो 'स, रे, स, नी, स' यह स्वर समूह बजाना ही कॄन्तन है। यह क्रिया दूसरे स्वरों पर भी की जा सकती है। 

Friday, 25 April 2025

जमजमा Zamzama in music

 Zamzama जमजमा 

जमजमा भी एक प्रकार की गमक है। जो स्फूरीत गमक के नाम से जानी जाती है। जमजमा तारवाद्य (सितार) तथा बाँसुरी आदि पर विशेष रूप में बनाया जाता है।  

परिभाषा: सितार में स्वरों को एक-साथ या एक-दूसरे के बाद एक ही आघात में जल्दी-2 बजाने से जो एक प्रकार की हिलती हुई आवाज उत्पन्न होती है, उसे जमजमा कहते है।

वादन क्रिया:  जमजमा उत्पन्न करते समय दो उंगलियाँ (दाएँ हाथ की) प्रयोग होती हैं। उनमें से एक उंगली सितार के पर्दे पर स्थित करती। और दूसरी हरकत करती है। उदाहरण के लिए ग,म,ग,स स्वर उत्पन्न करने के लिए पहली उंगली (तर्जनी) को ग के पर्दे पर स्थिर रखेंगे तथा दाएँ हाथ से मिज़राब द्वारा तार पर जोर से आघात करके आवाज को कायम रखते हुए बीच वाली उंगली से 'म' के पर्दे को बार-बार छू कर ग, म, ग, म, ग स्वर उत्पन्न होंगे। इस क्रिया को जमजमा कहते है।

Thursday, 24 April 2025

खटका-मूर्की Khatka Murki

 खटका-मूर्की Khatka-Murki

1. खटका और मूर्की दोनों शब्दों में मतभेद है। अधिकांश विद्वानों द्वारा मान्य इनकी परिभाषा इस प्रकार है –
चार अथवा चार से अधिक स्वरों की एक गोलाई बनाते हुए जैसे: स, रे, नि, स अथवा उसके आगे-पीछे के स्वरो से द्रुत गति में गोलाई बनाते हैं और उसी स्वर पर समाप्त करते हैं जिसे कोष्ठक में बंद किया जाता है। 

2. खटका और मूर्की में केवल स्वरो की संख्या का अंतर होता है। मूर्की में इस तरह लिखते है । जैसे:

मूर्की का प्रयोग टप्पा, ठुमरी, दादरा में होता है। मूर्की प्राचीन स्फुरित गमक में आती है।  

Tuesday, 22 April 2025

मींड Meend Definition in hindi in Music

 मींड 

किन्ही दो स्वरों का इस प्रकार गाने अथवा बजाने को मींड कहते है, जिससे  रिक्त-स्थान ना रहे। दूसरे स्वर में एक स्वर से दूसरे स्वर तक जाने को मींड कहते है। मींड लिखते समय बीच के स्वरो का स्पर्श इस प्रकार होता है कि वे अलग-अलग दिखाई नहीं पड़ते। उदाहरण स से म तक मींड लेते समय बीच के स्वरो का स्पर्श आवश्य होता है। किंतु वे अलग-अलग सुनाई नहीं देते। मींड लिखने के लिए स्वरो के ऊपर उल्टा अर्ध चंद्रकार बनाते है जैसे 

। मींड भारतीय संगीत की विशेषता है। इससे गाने में लोचा और रंजकता आती है। 

Monday, 21 April 2025

Gram ग्राम definition in music

 ग्राम 

ग्राम संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है गाँव। स्वर व श्रुतियाँ के रहने की जगह को ग्राम कहते है। 

संगीत रत्नाकर में पं. शारंगदेव जी लिखते है- ऐसा स्वर समूह जो मूर्च्छनाओं का आधार हो ग्राम कहलाता है।

1. षडज ग्राम: 

इसे षडज ग्राम इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह षडज (स) स्वर से आरंभ होता है। इस ग्राम में स-प, रे-ध, ग-नि, म-स में परस्पर संवाद है। 

2. मध्यम ग्राम: जब न शुद्ध स्वरो को 22 श्रुतियों पर 4-3-2-4-3-4-2 के क्रम से स्थापित किया जाता है तो मध्यम ग्राम की प्राप्ति होती है। मध्यम ग्राम में पंचम की एक श्रुति कम होकर धैवत को मिल जाती है। अतः मध्यम ग्राम में पंचम 3 श्रुतियों का रह जाता है। मध्यम ग्राम की श्रुति स्वर स्थापना —


3. गंधार ग्राम: इसका प्रयोग गंधर्व लोक में किया जाता है। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र (उनकी पुस्तक) में इसके बारे में कुछ नहीं लिखा। यह ग्राम प्राचीनकाल में ही खत्म होने लगा था।

सारांश: आधुनिक 12 स्वरों की प्रणाली में यह व्यवस्था मेल नहीं खाती। अतः आज ग्राम की उपयोगीता खत्म हो गई है।