संगीत रत्नाकर
संगीत रत्नाकर भारतीय संगीत का प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह ग्रंथ उत्तरी और दक्षिणी संगीत पद्धति का आधार ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ को पं. शारंग देव जी ने सात भागों में विभाजित किया है। सात अध्याय इस प्रकार है-
1. स्वर अध्याय
2. विवेका अध्याय
3. प्रकीर्णध्याय
4. प्रबन्धाध्याय
5. तालाध्याय
6. वाद्याध्याय
7. नृत्याध्याय
1. ग्रंथ परिचय: पं. शारंग देव ने अपने ग्रंथ में सदाशिव-पार्वती, भरत, मतंग आदि ग्रंथकारो का उल्लेख किया है।
2. संगीत लक्ष्ण: इस ग्रंथ में संगीत दो भेद मार्गी और देशी जाने जाते हैं।
3. नाद: पं. शारंग देव जी गीत, वाद्य और नृत्य को नादात्मक मानते है। नाद से वर्ण, वर्ण से पद, और पद से वाक्य बनते है।नाद के दो भेद है- आहत नाद और अनाहत नाद।
4. श्रुति: इन्होंने 22 श्रुतियाँ मानी है और 22 श्रुतियों को प्रभावित करने के लिए श्रुति साधना सरंचना का विवरण दिया है।
5. स्वर: स्वर की परिभाषा में शारंग देव जी लिखते हैं कि श्रुति के बाद उत्पन्न होने वाले रंजक नाद स्वर कहलाता है। 22 श्रुतियों पर 7 शुद्ध स्वर माने हैं और 12 विकृत स्वरों को मिलाकर 19 स्वर माने है।
6. वादी, संवादी, विवादी और अनुवादी: जिस स्वर का राग में बहुत प्रयोग होता है, उसे वादी स्वर। जिस स्वर का प्रयोग वादी से थोड़ा कम हो वह संवादी स्वर। जिस स्वर का प्रयोग उसके अतिरिक्त हो उन्हें अनुवादी स्वर तथा जिस स्वर का प्रयोग राग में वर्जित हो उसे विवादी स्वर कहते है।
7. ग्राम: ग्राम की परिभाषा में पंडित शारंग देव जी लिखते हैं कि मूर्च्छना का आधार स्वर ग्राम कहलाता है। यह तीन प्रकार के है-
1. षडज ग्राम
2. मध्यम ग्राम
3. गंधार ग्राम
8. मूर्च्छना: सात स्वरों के क्रमानुसार आरोह-अवरोह करने को मूर्च्छना कहते है। षडज और मध्यम ग्राम की सात-सात मूर्च्छनाएँ मानी।
9. वर्ण: गाने की क्रिया को वर्ण कहते है। यह चार प्रकार के होते है:-
1. स्थाई वर्ण
2. आरोही वर्ण
3. अवरोही वर्ण
4. संचारी वर्ण
10. अलंकार: पंडित जी विशेष वर्ण समुद्र को अलंकार कहते है। उनके अनुसार अलंकार का प्रयोग गायन वादन में रंजकता बढ़ाता है। और स्वरो की सही स्थिति का ज्ञान करवाता है।
11. थाट: शारंग देव जी ने शुद्ध थाट काफी माना है परंतु आजकल शुद्ध थाट बिलावल है।
12. जाति लक्षण: इन्होंने भरत द्वारा निर्धारित 10 लक्षणों में सन्यास, विन्यास, अंतर मार्ग को जोड़कर जाति के 13 लक्षण माने। जैसे: ग्रह, अंश, न्यास, आदि।
13. वाद्य: पंडित जी ने वाद्यों को उनके उपयोग के अनुसार चार भागों में बांटा है-
i) तत्वाद्य
ii) सुषि वाद्य
iii) अवनद वाद्य
iv) धन वाद्य
14. ताल: इस अध्याय में पंडित ने उस समय की प्रचलित तालों के बारे में बताया है। इन सभी तालों को प्रभु के लिए गाने वाले मार्गी और देशी तालो मे विभाजित किया है।
वास्तव में पं. शारंगदेव जी ने संगीत रत्नाकर की रचना करके एक अद्भुत कार्य किया है।
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